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| ...आवारगी के दिन |
![आज दीपक अरोड़ा की ये कविता दोबारा पढ़ी ....हर शब्द अन्दर तक उतरता हुआ ...आवारगी के दिन ..आशिक क्या सोचता है.. अकेला , रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर ...जस्ट गो थ्रू इट ______________________ खुलीं आँखों में,सुर्मसलाई से फिरी एक अधसोई रात, कुछ बेतरतीब स्वप्न, एक एकांत में उग आये मकबरे के पास की पीली घास, धूसर आकाश में तुम्हारे होने के चिन्ह, प्रतीक्षा में एक पीतल के बर्तन में, फीके हरे भूरे बनअफ्शे सा उबलता मैं, यक़ीनन ! आज साफ हुआ हलक तो कह पाऊँगा वह सब, जो कहना शेष है,और शायद वह भी, जिसे कहा नहीं केवल समझा जाता है . भीड़ भरे रेलवे स्टेशनों पर गहरी रातों में फैले सन्नाटे, ख़ाली टिकट खिडकियों के पास, आदमकद काले बोर्डों पर ,चमकते दांतों से लिखे, विदा कहने के उपयुक्त समय और साधन, गोल और चोकौर पाईप से बने, गहरे हरे,देह के कोनों में चुभते बेंचों पर बैठ, कहीं जा ना सकने वाले लोग, रात की आखरी गाडी के चालक को शुभरात्रि कहते हैं, इस बीच मुहं और आँख धो तैयार हो जाते हैं, दिन की पहली रेल प्लेटफार्म पर लगाने वाले चालक को , सुप्रभात कहने को भी . सच कि जानता हूँ कहीं नहीं जाना मुझे, मैं रेलवे स्टेशन पर होता हूँ रात और सुबह की पहली गाडी के वक़्त, अक्सर बैठ जाता हूँ बीहड़ में उग आये मकबरों की छाया में, अक्सर चाहता हूँ तुम होतीं इक तराशा हुआ स्तम्भ, प्रेम ,विरह ,मिलन की घड़ियों से गुज़रे किसी, मकबरे के मालिक का, अनुपस्थित मुझे नहीं देखता कोई, पीली सूखी घास के सिवा ,तुम्हे बाँहों में भरते हुए, और तुम्हारा वहां ना होना भी . ___________________________ @[100003007206665:2048:Deepak Arora]](https://fbcdn-sphotos-g-a.akamaihd.net/hphotos-ak-prn1/s480x480/76637_456133377770992_2143821768_n.jpg)
खुलीं आँखों में,सुर्मसलाई से फिरी एक अधसोई रात, कुछ बेतरतीब स्वप्न, एक एकांत में उग आये मकबरे के पास की पीली घास, धूसर आकाश में तुम्हारे होने के चिन्ह, प्रतीक्षा में एक पीतल के बर्तन में, फीके हरे भूरे बनअफ्शे सा उबलता मैं, यक़ीनन ! आज साफ हुआ हलक तो कह पाऊँगा वह सब, जो कहना शेष है,और शायद वह भी, जिसे कहा नहीं केवल समझा जाता है .
भीड़ भरे रेलवे स्टेशनों पर गहरी रातों में फैले सन्नाटे, ख़ाली टिकट खिडकियों के पास, आदमकद काले बोर्डों पर ,चमकते दांतों से लिखे, विदा कहने के उपयुक्त समय और साधन, गोल और चोकौर पाईप से बने, गहरे हरे,देह के कोनों में चुभते बेंचों पर बैठ, कहीं जा ना सकने वाले लोग, रात की आखरी गाडी के चालक को शुभरात्रि कहते हैं, इस बीच मुहं और आँख धो तैयार हो जाते हैं, दिन की पहली रेल प्लेटफार्म पर लगाने वाले चालक को , सुप्रभात कहने को भी .
सच कि जानता हूँ कहीं नहीं जाना मुझे, मैं रेलवे स्टेशन पर होता हूँ रात और सुबह की पहली गाडी के वक़्त, अक्सर बैठ जाता हूँ बीहड़ में उग आये मकबरों की छाया में, अक्सर चाहता हूँ तुम होतीं इक तराशा हुआ स्तम्भ, प्रेम ,विरह ,मिलन की घड़ियों से गुज़रे किसी, मकबरे के मालिक का, अनुपस्थित मुझे नहीं देखता कोई, पीली सूखी घास के सिवा ,तुम्हे बाँहों में भरते हुए, और तुम्हारा वहां ना होना भी .
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29 Oct 2012
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