मेरे अन्दर की कवियत्री ..............
शब्दों के पंख लगा सृजन के आकाश में उड़ना चाहती है
साहित्य के शामियाने में चंद नगीने जड़ना चाहती है
गलीसड़ी रिवायतो से अपनी कलम से लड़ना चाहती है
मेरे अन्दर की कवियत्री ..............
सुना सकती है कविता जेठ दोपहर सी लम्बी जुदाई की
गुनगुना सकती है नज़्म उस बन्दा परवर की खुदाई की
लिख सकती है ग़ज़ल इस सुरसा सी मुंह खोलती महंगाई की
मेरे अन्दर की कवियत्री ..............
इश्क की बातें ,मिलन की रातें
देश की निति, दहेज़ कुरीति
कब हुए जुदा ,कहाँ मिला खुदा
सब लिख सकती है......
मगर डरती है मेरे अन्दर की औरत
यहाँ हर बात के सौ अर्थ माने जायेंगे
भाव उसके दिमाग नही देह से जाने जायेंगे
शब्द उसके भोहों के कटाव से पहचाने जायेंगे
विकृति के कीड़े हर नज़्म ,ग़ज़ल को खायेंगे
कविता को मेरी सूरत से और एहसास को नाम से जोड़ेंगे
पूजने वाले हाथ ही मूरत टुकड़ा टुकड़ा तोड़ेंगे
डरती है मेरे अन्दर की औरत
और उसके साथ ही मरती है
मेरे अन्दर की कवित्री....जो
शब्दों के पंख लगा सृजन के आकाश में उड़ना चाहती है.....कोमलदीप